Saturday, 21 June 2014

वरपा नियत ढीगी निशचर की शंकर को मारे चाहा

कैलाशी काशी के वासी, सुनते नाथ सबकी करुणा
मन की दुविधा दूर करो, बम भोले नाथ का लो शरणा ।।टेर ।।
एक समय देव दानवों ने मिलकर, क्षीर सिन्धु का मथन किया
रतन जो चौदह निकले उसमें, एक एक कर बॉंट लिया
अमृत धारण कियो देवता, जहर हलाहल शम्भु पिया
नीलकण्ठ तब नाम पड़ा, ओ कैलाशपुरी में वास किया
ऐसे भोले भण्डारी शिव का, ध्यान निरंतर सब धरणा ।। मन की ।।

कठिन तपस्या करी भस्मासुर, बारह मास लग्यो तपना
अंग अंग सब जार दियो, तब कैलाश छोड़ दिये दर्शना
मांगना है सो मांग भक्त तू, तोपर हूँ मैं बहुत प्रसन्न
देऊ राज तोहे तीन लोक का, रहे देवता तेरी शरण
वर दो नाथ हाथ धरूँ जिस पर होए तुरन्त उसका मरणा ।। मन की ।।

वरपा नियत ढीगी निशचर की शंकर को मारे चाहा
आगे आगे चले विश्म्भर वैकुण्ठ द्वार का लिया सहारा
खगपती चौकी देख शम्भु की उतर गयी तन कोपीनवार
देख दिगम्बर रूप शम्भु का लक्ष्मीजी दीना पट डार
ब्रह्मा विष्णु महेश एक है, इनमें अन्तर नहीं करना ।। मन की ।।

देखी ऐसी हालत शम्भु की, तुरन्त मोहिनी रूप धरे
जीत लिया निश्चर के मन को, तब यूं बोले वचन खरे
आक धतूरा पिने वाले का, क्या इसका एतबार करे
अपने सिर पर हाथ धरो तो, सांच झूठ की ठाह पड़े
मन निश्चय कियो निशाचर, देखा निश्चर का मरणा ।। मन की ।।

रतन जठित कैलाश शम्भु का मणि कपाट द्वार सजा
आक धतूरा तोता मैना, सब पंछी रहते ताजा
वाहन जिनका है नांदिया, सब देवन के हैं राजा
कामधेनु ओ कल्पवृक्ष नित ढमरू के बाजे बाजा
शिवलाल पसारी दास तुम्हारा प्रभु के चरण में चित धरणा ।। मन की ।।


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